7. नया मार्ग सिध्दाँत
इस प्रकार प्रतिदिन नानक जी मवेशियों को लेकर चारे की तलाश में वनों की ओर घूमने लगे।
वहाँ नानक जी का मन बहुत रमता। वह एकान्त वास तथा शान्त वातावरण में प्रभु चरणों
में मन एकाग्र करके चिंतन में खो जाते। वहाँ अक्सर साघू-सन्यासी भी पड़ाव डालते नानक
जी उन से जरूर भेंट करते तथा चौपाल पर उन से ज्ञान गोष्ठी करते। नानक जी सदैव
कर्म-काण्डों तथा आडम्बरों पर कटाक्ष करते तथा अन्तर आत्मा में प्रभु को ढूँढने को
कहते। कभी-कभार विचारों के आदान-प्रदान में तीखा विवाद उत्पन्न हो जाता। नानक जी
सदैव कहते ‘केवल एक प्रभु पारब्रह्म–परमेश्वर है’। यह देवी देवता सब उस प्रभु की
रचना मात्र है। हमें इनकी पूजा न करके, सीधे प्रभु को आराधना चाहिये। वही सर्व
शक्तिमान है। परन्तु कुछ कर्मकाण्डी साधु उनसे सहमत न होते। वे प्रभु के साकार रूप
में विश्वास रखते। परन्तु नानक जी निराकार की उपासना पर बल देते तथा निराकार की
परिभाषा का व्याख्यान कर बताते कि हमें मालूम होना चाहिये कि प्रभु,
पारब्रह्म-परमेश्वर किसे कहते हैं। वह पत्थर की मूर्ति में नहीं, वह तो रोम-रोम में
कण-कण में समाया हुआ है। ऐसे ही दिन व्यतीत होने लगे। आये दिन किसी न किसी साधु
मण्डली से नानक जी का वार्तालाप होता। एक दिन एक योगी मण्डली से नानक जी की भेंट हो
गई जो कि कानों में बड़ी-बड़ी वालियाँ डाले हुए थे। वह लोग नानक जी को बालक जानकर पहले
तो रूखे से पेश आये। परन्तु जब उन्होंने नानक जी के तर्क संगत विचार सुनें तो वह सब
नानक जी में रुचि लेने लगे। देखते ही देखते विचार गोष्ठी प्रारम्भ हो गई। तब नानक
जी कहने लगेः कि हे सत्य–पुरुषों ! पहले आप यह तो जानो कि हम पारब्रह्म-परमेश्वर
किसे कहें ? योगीः बालक, उस के लिए हम ओम शब्द का प्रयोग करते हैं। नानक जीः ठीक
है, परन्तु यह शब्द तो तीन प्रमुख एवँ अलग-अलग देवताओं का सम्बोधन चिन्ह मात्र है।
केवल एक प्रभु का तो यह प्रतीक नहीं है। योगीः बेटा तुम ठीक कहते हो, अब तुम्हीं हमें
बताओ कि हम प्रभु किसे कहें ? नानक जीः यह जो हमने तीन देवताओं के स्वरूप में
अलग-अलग प्रभु को मान लिया है। वास्तव में हम भटक गये हैं। प्रभु तो केवल एक और
केवल एक ही है। इन ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं का भी निर्माता वही अदृश्य
शक्ति ही है और वही एक मात्र सत्य है बाकी सभी नाशवान है यहाँ तक कि यह तीनों
प्रमुख देवता भी नश्वर हैं, क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है उस का विनाश भी निश्चित
होता है। अतः जो जन्म व मरण में नहीं आता, वही सत्य सिद्ध प्रकाश परमात्मा है। योगीः
बेटा ! तुम्हारे तर्क में सत्य की झलक दिखाई पड़ती है। भला बताओ तो उस ईश्वर में और
क्या-क्या गुण हैं ?
नानक जीः बात सीधी सी है, योगिराज जी ! जो दृष्टिमान है वह
नाशवान भी है। जिसका जन्म है उसका मरण भी है। इसलिए, जो केवल अदृश्य है अर्थात्
अनुभव प्रकाश है, वही समस्त जगत का कर्ता है। उसके विशेष गुण हैं, वह अभय है अर्थात्
उसको किसी दूसरी शक्ति से पराजित होने का डर नहीं, क्योंकि उसके समान कोई दूसरी
शक्ति है ही नहीं बस वही एक मात्र शक्ति है जिस का प्रतिद्वंद्वी कोई नहीं है। वही
निरवैर है अर्थात् वह सबसे एक समान प्रेम करने वाला है उसका किसी के साथ विरोध नहीं।
वही एक मात्र शक्ति है जो कि समय के बन्धनों से मुक्त अर्थात् ऊपर है। वह न बूढ़ा
होता है, न युवक, न ही बालक। वह तो सदैव एक सम रहने वाला अकाल पुरुष है जो कि माता
की कोख से जन्म नहीं लेता। इस के विपरीत देवी-देवताओं के माता-पिता है तथा यह सब
सांसारिक है। अब प्रश्न यह उठता है कि उसकी उत्पत्ति कैसे हो ? योगीः वह तो स्वयंभू
है। नानक जीः बिल्कुल ठीक, उस का निर्माता कोई नहीं। उसने अपना निमार्ण स्वयँ ही
किया है। इसीलिए उसे खुदा कहते हैं। अब फिर से प्रश्न उठता है कि उसकी हमें प्राप्ति
कैसे सम्भव हो सकती है ? योगीः हम इस कार्य के लिए समाधि लगाते हैं चिंतन मनन करते
हैं। नानक जीः योगी जी एक बात जान लो। जब तक तुम्हारे पास किसी पूर्ण पुरुष का
मार्ग दर्शन नहीं होगा, तब तक यह समाधियाँ तथा चिन्तन-मनन व्यर्थ हैं। क्योंकि,
सच्चे गुरू के मिलाप के अभाव से तुम्हारे किसी भी कार्य में सफलता के अँकुर नहीं
फूटेंगे। अर्थात् पूर्ण गुरू की कृपा के बिना प्रभु मिलन असँभव है। योगीः बेटा बताओ,
हम सत्य गुरू की कृपा के पात्र कैसे बनेंगे ? नानक जीः योगी जी ! गुरू की आज्ञा
पालन करने से ही हम उस परमात्मा की कृपा के पात्र बन सकते हैं, केवल गुरू धारण करने
मात्र से बात नहीं बनती। योगीः बेटा, यह बात भी तुम सत्य कह रहे हो, परन्तु प्रश्न
अभी भी वैसे का वैसा ही है। हम यह कैसे जानें कि हमें गुरू जी की क्या आज्ञा है तथा
उन के आदेशों का पालन कैसे हो ? नानक जीः वही कार्य किये जाएँ जो परहित में हों।
जिससे सभी को सुख मिले। हमारे किसी भी कार्य में दिखावा न होकर वास्तविकता हो।
अर्थात् हम केवल कर्मकाण्डी ही न रहें, बल्कि सभी कार्य दिल से सीधे सम्बन्ध रखते
हों। जो कुछ हो रहा है वह उसी की आज्ञा अनुसार ही है, इसलिए उसके किसी भी कार्य में
बाधा न डालकर उसमें प्रसन्नता व्यक्त करें। बस इन्हीं बातों से गुरू प्रसन्न होकर
प्रभु मिलाने में सहायक बनते हैं।