3. विद्याध्ययन
जब नानक जी सात वर्ष के हुए तो पिता कालू जी ने उनकी शिक्षा का
प्रबँध पण्डित गोपाल दास की पाठशाला में कर दिया। नानक जी अपने सहपाठियों के साथ
प्रतिदिन देवनागरी की वर्णमाला सीखने लगे। आप एक बार में ही वह सभी कुछ कण्ठस्थ कर
लेते। दूसरे बच्चों को एक-एक अक्षर सीखने में कई-कई दिन लगते। यह क्रम चलता रहा,
जिससे पण्डित जी, नानक देव जी की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए। एक दिन नानक जी ने
अध्यापक गोपाल दास जी से प्रश्न कियाः आप ने जो मुझे अक्षर सिखाए हैं उनका अर्थ भी
सिखाएं। यह सुनकर पंडित जी चकित हो गये तथा सोचने लगे कि मुझसे ऐसा प्रश्न आज तक
किसी विद्यार्थी ने नहीं किया। पण्डित ने कहाः नानक ! यह तो अक्षर मात्र हैं, जो कि
दूसरे अक्षरों से योग कर, किसी वाक्य की उत्पत्ति करते हैं। हां अगर तुम्हें
वर्णमाला के अर्थ आते हों तो मुझे भी बताओ ? नानक जीः ?क? अक्षर हमें ज्ञान देता है
कि?
ककै केस पुंडर जब हूए विणु साबूणै उजलिआ ।।
जम राजे के हेरू आए माइआ कै संगलि बंधि लइआ ।। रागु आसा, पृष्ठ 432
अर्थः जब मनुष्य के केश बुढ़ापे के कारण बिना साबुन प्रयोग किये
सफेद होते हैं तो मानो यमराज का संदेश मिल रहा है। परन्तु व्यक्ति प्रभु का चिन्तन
न कर माया के बन्धनों में बँधा रहता है। गोपाल पण्डित चकित होकरः बेटा नानक क्या
तुम वर्णमाला के सभी अक्षरों के अर्थ जानते हो ? हाँ पण्डित जी, मैं आपको सभी अक्षरों
का आध्यात्मिक अर्थ बता सकता हूँ कि यह हमें क्या ज्ञान देना चाहते हैं, नानक जी ने
कहा। इस प्रकार नानक जी ने समस्त वर्णमाला के आध्यात्मिक अर्थ कर दिये। तब गोपाल
दास पण्डित नानक जी से बहुत प्रभावित हुए तथा उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। समस्त
वर्णमाला की बाणीः
रागु आसा महला १ पटी लिखी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
ससै सोइ स्रिसटि जिनि साजी सभना साहिबु एकु भइआ ॥
सेवत रहे चितु जिन्ह का लागा आइआ तिन्ह का सफलु भइआ ॥१॥
मन काहे भूले मूड़ मना ॥
जब लेखा देवहि बीरा तउ पड़िआ ॥१॥ रहाउ ॥
ईवड़ी आदि पुरखु है दाता आपे सचा सोई ॥
एना अखरा महि जो गुरमुखि बूझै तिसु सिरि लेखु न होई ॥२॥
ऊड़ै उपमा ता की कीजै जा का अंतु न पाइआ ॥
सेवा करहि सेई फलु पावहि जिन्ही सचु कमाइआ ॥३॥
ङंङै ङिआनु बूझै जे कोई पड़िआ पंडितु सोई ॥
सरब जीआ महि एको जाणै ता हउमै कहै न कोई ॥४॥
ककै केस पुंडर जब हूए विणु साबूणै उजलिआ ॥
जम राजे के हेरू आए माइआ कै संगलि बंधि लइआ ॥५॥
खखै खुंदकारु साह आलमु करि खरीदि जिनि खरचु दीआ ॥
बंधनि जा कै सभु जगु बाधिआ अवरी का नही हुकमु पइआ ॥६॥
गगै गोइ गाइ जिनि छोडी गली गोबिदु गरबि भइआ ॥
घड़ि भांडे जिनि आवी साजी चाड़ण वाहै तई कीआ ॥७॥
घघै घाल सेवकु जे घालै सबदि गुरू कै लागि रहै ॥
बुरा भला जे सम करि जाणै इन बिधि साहिबु रमतु रहै ॥८॥
चचै चारि वेद जिनि साजे चारे खाणी चारि जुगा ॥
जुगु जुगु जोगी खाणी भोगी पड़िआ पंडितु आपि थीआ ॥९॥
छछै छाइआ वरती सभ अंतरि तेरा कीआ भरमु होआ ॥
भरमु उपाइ भुलाईअनु आपे तेरा करमु होआ तिन्ह गुरू मिलिआ ॥१०॥
जजै जानु मंगत जनु जाचै लख चउरासीह भीख भविआ ॥
एको लेवै एको देवै अवरु न दूजा मै सुणिआ ॥११॥
झझै झूरि मरहु किआ प्राणी जो किछु देणा सु दे रहिआ ॥
दे दे वेखै हुकमु चलाए जिउ जीआ का रिजकु पइआ ॥१२॥
ञंञै नदरि करे जा देखा दूजा कोई नाही ॥
एको रवि रहिआ सभ थाई एकु वसिआ मन माही ॥१३॥
टटै टंचु करहु किआ प्राणी घड़ी कि मुहति कि उठि चलणा ॥
जूऐ जनमु न हारहु अपणा भाजि पड़हु तुम हरि सरणा ॥१४॥
ठठै ठाढि वरती तिन अंतरि हरि चरणी जिन्ह का चितु लागा ॥
चितु लागा सेई जन निसतरे तउ परसादी सुखु पाइआ ॥१५॥
डडै ड्मफु करहु किआ प्राणी जो किछु होआ सु सभु चलणा ॥
तिसै सरेवहु ता सुखु पावहु सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥१६॥
ढढै ढाहि उसारै आपे जिउ तिसु भावै तिवै करे ॥
करि करि वेखै हुकमु चलाए तिसु निसतारे जा कउ नदरि करे ॥१७॥
णाणै रवतु रहै घट अंतरि हरि गुण गावै सोई ॥
आपे आपि मिलाए करता पुनरपि जनमु न होई ॥१८॥
ततै तारू भवजलु होआ ता का अंतु न पाइआ ॥
ना तर ना तुलहा हम बूडसि तारि लेहि तारण राइआ ॥१९॥
थथै थानि थानंतरि सोई जा का कीआ सभु होआ ॥
किआ भरमु किआ माइआ कहीऐ जो तिसु भावै सोई भला ॥२०॥
ददै दोसु न देऊ किसै दोसु करमा आपणिआ ॥
जो मै कीआ सो मै पाइआ दोसु न दीजै अवर जना ॥२१॥
धधै धारि कला जिनि छोडी हरि चीजी जिनि रंग कीआ ॥
तिस दा दीआ सभनी लीआ करमी करमी हुकमु पइआ ॥२२॥
नंनै नाह भोग नित भोगै ना डीठा ना सम्हलिआ ॥
गली हउ सोहागणि भैणे कंतु न कबहूं मै मिलिआ ॥२३॥
पपै पातिसाहु परमेसरु वेखण कउ परपंचु कीआ ॥
देखै बूझै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥२४॥
फफै फाही सभु जगु फासा जम कै संगलि बंधि लइआ ॥
गुर परसादी से नर उबरे जि हरि सरणागति भजि पइआ ॥२५॥
बबै बाजी खेलण लागा चउपड़ि कीते चारि जुगा ॥
जीअ जंत सभ सारी कीते पासा ढालणि आपि लगा ॥२६॥
भभै भालहि से फलु पावहि गुर परसादी जिन्ह कउ भउ पइआ ॥
मनमुख फिरहि न चेतहि मूड़े लख चउरासीह फेरु पइआ ॥२७॥
ममै मोहु मरणु मधुसूदनु मरणु भइआ तब चेतविआ ॥
काइआ भीतरि अवरो पड़िआ ममा अखरु वीसरिआ ॥२८॥
ययै जनमु न होवी कद ही जे करि सचु पछाणै ॥
गुरमुखि आखै गुरमुखि बूझै गुरमुखि एको जाणै ॥२९॥
रारै रवि रहिआ सभ अंतरि जेते कीए जंता ॥
जंत उपाइ धंधै सभ लाए करमु होआ तिन नामु लइआ ॥३०॥
ललै लाइ धंधै जिनि छोडी मीठा माइआ मोहु कीआ ॥
खाणा पीणा सम करि सहणा भाणै ता कै हुकमु पइआ ॥३१॥
ववै वासुदेउ परमेसरु वेखण कउ जिनि वेसु कीआ ॥
वेखै चाखै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥३२॥
ड़ाड़ै राड़ि करहि किआ प्राणी तिसहि धिआवहु जि अमरु होआ ॥
तिसहि धिआवहु सचि समावहु ओसु विटहु कुरबाणु कीआ ॥३३॥
हाहै होरु न कोई दाता जीअ उपाइ जिनि रिजकु दीआ ॥
हरि नामु धिआवहु हरि नामि समावहु अनदिनु लाहा हरि नामु लीआ ॥३४॥
आइड़ै आपि करे जिनि छोडी जो किछु करणा सु करि रहिआ ॥
करे कराए सभ किछु जाणै नानक साइर इव कहिआ ॥३५॥१॥ अंग 432
गोपाल पण्डित जी ने नानक जी से पूछाः बेटा यह विद्या तुमने कहाँ
से सीखी है ? तब नानक जी चुप्पी साधे रहे। इस पर पण्डित जी ने कहाः बेटा नानक कल
तुम अपने साथ अपने पिता जी को मेरे पास ले आना। जब पिता कालू जी पण्डित गोपाल दास
जी के पास पहुँचे तो उन्होंने उनका भव्य स्वागत किया तथा आदर सत्कार के पश्चात् कहा,
मेहता कल्याण चन्द जी, तुम्हारा होनहार बालक मेरे पास पढ़ रहा है। इस लिए मैं गौरव
अनुभव करता हूँ। पण्डित जी ने कहा मैं तो चाहता हूँ कि इसे किसी ज्ञानी पुरुष से
शिक्षा दिलवाई जाती तो अच्छा था। क्योंकि यह बहुत ऊँची प्रकृति का स्वामी है। लेकिन
मेहता कालू जी ने बार बार जोर देकर कहा कि आप ही इसे पढ़ाये, तब पण्डित जी का उनकी
बात मानना पड़ी। उस दिन के पश्चात् पण्डित जी तथा नानक जी के बीच में
अध्यापक-विद्यार्थी का रिश्ता समाप्त होकर, मित्रता तथा समानता के नये नाते ने जन्म
लिया। अब नानक जी तथा पण्डित जी में आध्यात्मिक चर्चा होती। दस वर्ष की आयु
होते-होते नानक जी ने पण्डित जी से पूरी तरह विद्या प्राप्त कर ली। गुरू नानक देव
जी ने पाठशाला में तीन वर्ष के भीतर ही अपनी प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त कर ली। गुरू
नानक देव जी की आगे की शिक्षा पण्डित बृज लाल जी के यहाँ प्रारम्भ हो गई तथा नानक
जी संस्कृत का अध्ययन करने लगे। दो वर्ष की अल्प अवधि में ही नानक जी ने सभी प्रकार
के ग्रंथों का अध्ययन किया तथा शास्त्रार्थ भी सीख लिया। पण्डित बृज लाल जी को नानक
जी की प्रतिभा पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने पण्डित गोपाल दास तथा
पण्डित हरिदयाल जी से नानक जी के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था। अतः वह अति प्रसन्न
थे कि यह लड़का उनका नाम रोशन करेगा।