16. भाई भागीरथ
तलवंडी से जाते समय नानक जी ने अपने प्यारे मित्र मरदाने को साथ चलने के लिए तैयार
कर लिया तथा उसे लेकर सुलतानपुर पहुँच गये। अब पुनः मरदाने की सँगत मिलने से नानक
जी ने, सरकारी काम से निपट कर कीर्तन का नित्य प्रति अभ्यास प्रारम्भ कर दिया।
धीरे-धीरे कीर्तन सुनने दूर-दूर से प्रेमी आने लगे। नानक जी ने प्रातः तथा सँध्या
दोनों समय कीर्तन के लिए निश्चित कर लिया। अपने कार्य से जब वह अवकाश पाते तब मरदाने
को साथ लेकर एक विशेष रमणीक स्थल पर जा विराजते। बस, वहीं प्रभु स्तुति में शब्द
कहते जिसे मरदाना अपनी रबाब की मधुर सुरों में बन्दिश देता। जल्दी ही कीर्तन के
रसिक भी आपके पास आपकी मण्डली में शामिल होने लगे। एक दिन मल्लसीहां का लँबरदार,
भाई भगीरथ भी आपके कीर्तन को सुनने आया। वास्तव में वह दुर्गा का उपासक था। इसलिए
वह स्वयँ दुर्गा की स्तुति हेतु भेटें गाया करता था। परन्तु उसको अपनी इन भेटों में
आत्मिक आनंद नहीं मिल पाता था, क्योंकि वह सभी रचनाएं मनोकल्पित होती थीं। किन्तु
नानक जी की वाणी में कोई कल्पना या अनुमान न होकर, उस प्रभु में अभेदता का अनुभव
ज्ञान होता था, जो कि मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालता था तथा मनुष्य को
मन्त्रमुग्ध कर उसके हृदय में समा जाता था। जब उसने नानक जी का रसमय कीर्तन श्रवण
किया तो उसे अपनी रचनाएँ फीकी लगने लगीं, क्योंकि उसकी भेटों में आत्म ज्ञान का
अभाव स्पष्ट दिखाई देता था। अतः वह नानक जी के चरणों में गिर पड़ा तथा नम्रता पूर्वक
विनती करने लगा कि आप मुझे अपना शिष्य बना लें, जिससे मैं आपसे आध्यात्मिक ज्ञान
प्राप्त कर सकूं। आज तक मैं केवल भटकता रहा हूँ तथा मुझे आत्मिक आनंद अभी तक
प्राप्त नहीं हुआ था जो कि आप की शरण में आने पर, आप की वाणी सुनने पर, प्राप्त हुआ
है। यह सुनकर नानक जी ने भाई भगीरथ को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया तथा उपदेश दिया
कि उसे निराकार ज्योति की ही सदैव स्तुति करनी चाहिये। जो सबको साकार रूप में
दृष्टिमान होता है, वह स्वयँ जन्म मरण के चक्र में नहीं है।
दूजा काहे सिमरीऐ जंमै ते मरि जाए ।।
एको सिमरइ नानका जो जलि थलि रहिआ समाइ ।। जन्म साखी
अर्थः हम दूसरों की पूजा क्यों करें, उन्हें तो परमात्मा ने ही
बनाया है तथा जो जन्म लेते और मर जाते हैं, हमें तो केवल उस परमात्मा का नाम ही जपना
चाहिए, जो जल, थल यानि कण-कण में समाया हुआ है। यह सुनकर भाई भगीरथ जी कहने लगेः कि
आज से, अभी से मैंने आपको अपना आध्यात्मिक गुरू धारण कर लिया है अतः आप भी मुझे अपना
शिष्य स्वीकार करें तथा मुझे दीक्षा देकर कृतार्थ करें। तब नानक जी ने उसे अपना
प्रथम शिष्य सिख मानकर चरणामृत, चरण-पाहुल देकर अपना शिष्य बनाया। तब भाई भगीरथ ने
कहाः हे गुरुदेव ! मुझे आप ने सत्यमार्ग के दर्शन कराए हैं, मैं सदैव इस मार्ग पर
चलता रहूँगा तथा दूसरों को भी इसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करूँगा।